नीमच।महेंद्र उपाध्याय। जिले सहित नगर व अंचल में गुरुवार को रंग तेरस पर्व परंपरानुसार मनाया गया। कई स्थानों पर गेर निकाली गई तो कहीं रंग गुलाल से होली खेली गई। इन सबसे से अलग ग्वालियर रियासतकालीन बस्ती नीमच सिटी स्थित माहेश्वरी मोहल्ला में आजादी के पहले से चली आ रही अनूठी परंपरा का निर्वहन आज भी किया जा रहा है। माहेश्वरी मोहल्ले में देवनारायण मंदिर के सामने गडिय़ा भेरू बावजी का चमत्कारी स्थान है। यहां 5 फीट गहरे गड्ढे में दबे भेरू बावजी को साल में सिर्फ एक बार रंगतेरस के दिन विधि विधान से बाहर निकालते है।ओर बकरे की खाल में भरे पानी से भेरुजी को स्नान कराया जाता है। इसके बाद भेरूजी की मूर्ति को ओटले पर विराजित करते है। करीब 10 दिन विशेष रुप से पूजा अर्चना की जाती है। रंगतेरस के दिन भेरुजी के साथ रंग व गुलाल से होली खेली जाती है। भेरुजी को ठेला गाड़ी में विराजित कर नगर भ्रमण करवाया जाता है।माहेश्वरी मोहल्ला नवयुवक मंडल के सुनील माहेश्वरी, हेमेन्द्र चिंटू शर्मा, प्रकाश रावत, गौरव राव, संजय माहेश्वरी, धर्मेंद्र परिहार, सुरेश बैरागी ने संयुक्त रूप से बताया कि रंग तेरस पर गुरुवार को ब्रह्म मुहूर्त में गडिय़ा भेरू बावजी की मूर्ति को गड्ढे से बाहर निकाला गया। इसके बाद परंपरानुसार खाल में जल भरकर मूर्ति को स्नान करवाया। विधि विधान से पूजा अर्चना की गई। चोला चढ़ाकर शृंगार किया गया। लड्डू बाफले का प्रसाद चढ़ाया गया। इसके बाद दोपहर करीब 12 बजे भेरूजी को ठेलागाड़ी में विराजित कर बैंड बाजों के साथ क्षेत्र में गेर निकाली। यह गेर माहेश्वरी मोहल्ले से शुरू हुई। जो उपनगर नीमच सिटी के प्रमुख मार्गो से होती हुई पुनः माहेश्वरी मोहल्ला स्थित देवनारायण मंदिर पर समाप्त हुई।
*क्षेत्रवासियों ने लिया भेरूजी का आशीर्वाद*
रंग तेरस पर शाम को क्षेत्रवासी नए कपड़े पहनकर आते है ओर भेरू बावजी सहित बड़े बुजुगों का आशीर्वाद लेते हैं। इसके साथ ही 10 दिवसीय उत्सव शुरु हो जाता है। उत्सव के तहत रोजाना भेरू बावजी की पूजा अर्चना व आरती होगी। लोग मन्नत मांगेंगे। जिनकी मन्नत पूरी हो चुकी वे प्रसाद चढ़ाते हैं। 10 दिन बाद फिर से भेरूजी को उसी 5 फिट गहरे गड्ढे में गाड़ दिया जाता है।
*साल भर 5 फीट गहरे गड्ढे में दबे रहते हैं भेरुजी*
शहर के माहेश्वरी मोहल्ले में ग्वालियर रियासत के समय से अजीबो-गरीब परंपरा चली आ रही है। यहां लगभग एक साल तक भगवान को 5 फीट गहरे गड्ढे में दबा कर रखा जाता है। इसके बाद उन्हें होली के 13 दिन बाद रंग तेरस पर ब्रह्म मुहुर्त में बाहर निकाला जाता है। उसी समय भगवान की पूजा होती है। करीब 10 दिन तक भगवान को लोगों के दर्शन के लिए बाहर रखा जाता है। इसके बाद उन्हें फिर से जमीन में गाड़ दिया जाता है। इस परंपरा से जुड़ी नगर में कई परम्पराए प्रचलित हैं।
*आधुनिक युग में भी निभाई जा रही परंपरा*
प्रचलित कई परंपराएं इस आधुनिक युग में विलुप्त होती चली जा रही हैं। हालांकि रंग तेरस पर आजादी से पहले रियासत काल से चली आ रही यह परंपरा आज भी नीमच सिटी के माहेश्वरी मोहल्ले में निभाई जाती है। देवनारायण मंदिर के सामने खालडिय़ा भेरूबावजी का चमत्कारी स्थान है। इस स्थान पर पांच फीट गहरा गड्ढा है। इसी गड्ढे में एक साल तक भेरू बावजी को दबा कर रखा जाता है। बुजुर्ग बताते हैं कि यह परंपरा नीमच की बसावट के समय से चली आ रही है। बताया जाता है कि एक समय नीमच का नाम मीनच हुआ करता था, क्योंकि यहां मीणा समाज के लोग अधिक थे।अंग्रेजों के शासन के साथ ही समय कालांतर में नीमच नाम हुआ, क्योंकि यहां नीम के पेड़ ज्यादा हैं। इसलिए इसका नाम नीमच हुआ। इसी तरह अलग-अलग विद्वानों ने नीमच का इतिहास अलग-अलग बताया है।शहर की सबसे पुरानी बसावट नीमच सिटी क्षेत्र है। यहां जातियों के अनुसार मोहल्लों व क्षेत्रों के नाम है। जैसे मीणा मोहल्ला, माहेश्वरी मोहल्ला, जोशी मोहल्ला तथा सरदार मोहल्ले सहित अन्य मोहल्ले हैं।इसी प्रकार मीणा मोहल्ले के लोग भी भैरू बावजी को बाहर निकालते है। इसके बाद सुबह से ही पूजा-अर्चना का दौरान शुरु हो जाता है। दिन में भैरूजी को नगर भ्रमण कराया जाता है। इससे पहले विधि-विधान से भैरू बावजी को स्नान कराया जाता है। पलाश (टेसू) के फूलों से बना रंग लगाया जाता है।
*इसलिए कहते हैं खालडिय़ा भैरू*
किवदंतियों के अनुसार मान्यता है कि भैरूजी को गड्ढे से निकालने के बाद सबसे पहले ताजा बकरे की खाल में पानी भरकर डुबोया जाता है। उन्हें बकरे की खाल में भरे पानी से नहलाया जाता है। विधि-विधान से पूजा-अर्चना व लड्डू-बाफले का भोग लगाया जाता है। बैंड बाजों के साथ क्षेत्र में भेरूजी को ठेला गाड़ी में विराजित कर गेर निकाली जाती है। बकरे की खाल से स्नान कराने की परंपरा के कारण ही इन्हें खालडिय़ा भैरू कहते है। इसके अलावा भी भेरू बावजी के बारे में कई प्रकार की मान्यताएं व किवदंतियां प्रचलित हैं।
*बरसों पुरानी है परंपरा*
यह परंपरा बरसों से चली आ रही है। माहेश्वरी मोहल्ला में रहने वाले बुजुर्ग व वरिष्ठ लोग बताते हैं कि वह यह परंपरा बचपन से देखते आ रहे हैं।बुजुर्गों के दादा-परदादा ने भी इसी तरह की बात उन्हें बताई। इस तरह करीब 200 साल से ज्यादा से चली आ रही इस परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। हालांकि कुछ लोग इस इस परपंरा को 100 वर्ष से अधिक बताते हैं।
*एक साल हुई थी चूक, तो मोहल्ले में हुई 13 मौतें*
माहेश्वरी मोहल्ले में रहने वाले बुजुर्ग घनश्याम शर्मा बताते हैं कि भेरू बावजी को जमीन से निकालने में एक साल चूक हो गई थी। इससे मोहल्ले में 13 मौतें अकारण हुई थी। हालांकि उन्होंने चूक व मौतों को संयोग भी बताया,लेकिन इस परंपरा को 13 मौतों के अभिशाप से जोडकऱ देखा जा रहा है।
*गडिय़ा भेरू भी कहते हैं*
बताया जाता है कि जमीन में गड़े रहने के कारण इन्हें गडिय़ा भेरू भी कहते हैं। मान्यता है कि यह क्रोधित प्रवृत्ति के देवता हैं। ऐसे में उन्हें जमीन में गाडकऱ रखना जरुरी होता है। किवदंतियां है कि रंग तेरस मनाने के साथ ही भेरू बावजी का जलसा मनाने से क्षेत्र में पूरे साल सुख-शांति बनी रहती है। किसी को कभी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। माहेश्वरी व मीणा समाज सहित सर्वधर्म के लोग इस परंपरा का हिस्सा बनते हैं।
*दाल-बाफले ओर लड्डू का लगता है भोग*
भेरूजी को चोला चढ़ाकर श्रंगारित करते हैं। रंग तेरस पर गुलाल सहित टेसू से बना रंग भेरु बावजी को लगाया जाता है। इसके साथ ही स्थानीय घरों में दाल-बाफले व लड्डू बनाए जाते हैं। इनसे भेरू बावजी को भोग लगाया जाता है। इस दिन को क्षेत्र में त्योहार की तरह मनाया जाता है।पूजा-अर्चना के बाद भेरू बावजी की शोभायात्रा निकाली जाती है, इसे गेर भी कहते हैं। यह शोभायात्रा बैंडबाजों के साथ खेड़ी मोहल्ला क्षेत्र में जोशी मोहल्ला स्थित प्राचीन बालाजी व मोडिय़ा बावजी स्थान पर पहुंचती है। यहां भैरू बावजी को फिर से स्नान करवाया जाता है और पूजा-अर्चना के बाद पुन: अपने स्थान ले जाते हैं।
*गुजराती मोची समाज भी मनाता है रंग तेरस*
इसी प्रकार नीमच सिटी नया बाजार स्थित मोची मोहल्ले में भी गुजराती मोची समाज द्वारा रंग तेरस का पर्व बड़े ही हर्षोल्लास एवं धूमधाम के साथ मनाया जाता है यहां बसे गुजराती मोची समाज परिवार के सदस्य एक दूसरे को रंग गुलाल लगाते हैं और महिलाएं नृत्य करती हुई गैर का हिस्सा बनती है यह गैर मोची मोहल्ला नया बाजार से प्रारंभ होकर ग्वाल मोहल्ला पिपली चौक से होते हुए पुनः मोची मोहल्ला गणेश मंदिर पर समाप्त होती है जहां पानी रंग और गुलाल से होली खेली जाती है।